Friday, August 7, 2009

प्रेम विवाह के कुछ मुख्य योग

प्रेम विवाह के कुछ मुख्य योग
1. लग्नेश का पंचक से संबंध हो और जन्मपत्रिका में पंचमेश-सप्तमेश का किसी भी रूप में संबंध हो। शुक्र, मंगल की युति, शुम्र की राशि में स्थिति और लग्न त्रिकोण का संबंध प्रेम संबंधों का सूचक है। पंचम या सप्तक भाव में शुक्र सप्तमेश या पंचमेश के साथ हो।
2. किसी की जन्मपत्रिका में लग्न, पंचम, सप्तम भाव व इनके स्वामियों और शुक्र तथा चन्द्रमा जातक के वैवाहिक जीवन व प्रेम संबंधों को समान रूप से प्रभावित करते हैं। लग्र या लग्नेश का सप्तम और सप्तमेश का पंचम भाव व पंचमेश से किसी भी रूप में संबंध प्रेम संबंध की सूचना देता है। यह संबंध सफल होगा अथवा नही, इसकी सूचना ग्रह योगों की शुभ-अशुभ स्थिति देती है।
3. यदि सप्तकेश लग्नेश से कमजोर हो अथवा यदि सप्तमेश अस्त हो अथवा मित्र राशि में हो या नवांश में नीच राशि हो तो जातक का विवाह अपने से निम्र कुल में होता है। इसके विपरीत लग्नेश से सप्तवेश बाली हो, शुभ नवांश में ही तो जीवनसाथी उच्च कुल का होता है।
4. पंचमेश सप्तम भाव में हो अथवा लग्नेश और पंचमेश सप्तम भाव के स्वामी के साथ लग्न में स्थित हो। सप्तमेश पंचम भाव में हो और लग्न से संबंध बना रहा हो। पंचमेश सप्तम में हो और सप्तमेश पंचम में हो। सप्तमेश लग्न में और लग्नेश सप्तम में हो, साथ ही पंचम भाव के स्वामी से दृष्टि संबंध हो तो भी प्रेम संबंध का योग बनता है।
5. पंचम में मंगल भी प्रेम विवाह करवाता है। यदि राहु पंचम या सप्तम में हो तो प्रेम विवाह की संभावना होती है। सप्तम भाव में यदि मेष राशि में मंगल हो तो प्रेम विवाह होता है। सप्तमेश और पंचमेश एक-दूसरे के नक्षत्र पर हों तो भी प्रेम विवाह का योग बनता है।
6. पंचमेश तथा सप्तमेश कहीं भी, किसी भी तरह से द्वादशेष से संबंध बनाए लग्नेश या सप्तमेष का आपस में स्थान परिवर्तन अथवा आपस में युक्त होना अथवा दृष्टि संबंध।
7. जैमिनी सूत्रानुसार दाराकारक और पुत्रकारक की युति भी प्रेम विवाह कराती है। पंचमेश और दाराकार का संबंध भी प्रेम विवाह करवाता है।
8. सप्तमेश स्वग्रही हो, एकादश स्थान पापग्रहों के प्रभाव में बिलकुल न हो, शुक्र लग्न में लग्नेश के साथ, मंगल सप्तक भाव में हो, सप्तमेश के साथ, चन्द्रमा लग्न में लग्नेश के साथ हो, तो भी प्रेम विवाह का योग बनता है।

व्यवसाय में सफलता का सटीक अध्ययन

व्यवसाय में सफलता का सटीक अध्ययनशिक्षा पूर्ण होने के पश्चात अक्सर युवाओं के मन में यह दुविधा रहती है कि नौकरी या व्यवसाय में से उनके लिए उचित क्या होगा। इस संबंध में जन्मकुंडली का सटीक अध्ययन सही दिशा चुनने में सहायक हो सकता है।
* नौकरी या व्यवसाय देखने के लिए सर्वप्रथम कुंडली में दशम, लग्न और सप्तम स्थान के अधिपति तथा उन भावों में स्थित ग्रहों को देखा जाता है।
* लग्न या सप्तम स्थान बलवान होने पर स्वतंत्र व्यवसाय में सफलता का योग बनता है।
* प्रायः लग्न राशि, चंद्र राशि और दशम भाव में स्थित ग्रहों के बल के तुलनात्मक अध्ययन द्वारा व्यवसाय का निर्धारण करना उचित रहता है।
* प्रायः अग्नि तत्व वाली राशि (मेष, सिंह, धनु) के जातकों को बुद्धि और मानसिक कौशल संबंधी व्यवसाय जैसे कोचिंग कक्षाएँ, कन्सल्टेंसी, लेखन, ज्योतिष आदि में सफलता मिलती है।
* पृथ्वी तत्व वाली राशि (वृष, कन्या, मकर) के जातकों को शारीरिक क्षमता वाले व्यवसाय जैसे कृषि, भवन निर्माण, राजनीति आदि में सफलता मिलती है।
जल तत्व वाली राशि (कर्क, वृश्चिक, मीन) के जातक प्रायः व्यवसाय बदलते रहते हैं। इन्हें द्रव, स्प्रिट, तेल, जहाज से भ्रमण, दुग्ध व्यवसाय आदि में सफलता मिल सकती है।
* वायु तत्व (मिथुन, तुला, कुंभ) प्रधान व्यक्ति साहित्य, परामर्शदाता, कलाविद, प्रकाशन, लेखन, रिपोर्टर, मार्केटिंग आदि के कामों में अपना हुनर दिखा सकते हैं।
* दशम स्थान में सूर्य हो : पैतृक व्यवसाय (औषधि, ठेकेदारी, सोने का व्यवसाय, वस्त्रों का क्रय-विक्रय आदि) से उन्नति होती है। ये जातक प्रायः सरकारी नौकरी में अच्छे पद पर जाते हैं।
* चन्द्र होने पर : जातक मातृ कुल का व्यवसाय या माता के धन से (आभूषण, मोती, खेती, वस्त्र आदि) व्यवसाय करता है।
* मंगल होने पर : भाइयों के साथ पार्टनरशिप (बिजली के उपकरण, अस्त्र-शस्त्र, आतिशबाजी, वकालत, फौजदारी) में व्यवसाय लाभ देता है। ये व्यक्ति सेना, पुलिस में भी सफल होते हैं।
* बुध होने पर : मित्रों के साथ व्यवसाय लाभ देता है। लेखक, कवि, ज्योतिषी, पुरोहित, चित्रकला, भाषणकला संबंधी कार्य में लाभ होता है।
* बृहस्पति होने पर : भाई-बहनों के साथ व्यवसाय में लाभ, इतिहासकार, प्रोफेसर, धर्मोपदेशक, जज, व्याख्यानकर्ता आदि कार्यों में लाभ होता है।
* शुक्र होने पर : पत्नी से धन लाभ, व्यवसाय में सहयोग। जौहरी का कार्य, भोजन, होटल संबंधी कार्य, आभूषण, पुष्प विक्रय आदि कामों में लाभ होता है।
शनि :- शनि अगर दसवें भाव में स्वग्रही यानी अपनी ही राशि का हो तो 36वें साल के बाद फायदा होता है। ऐसे जातक अधिकांश नौकरी ही करते हैं। अधिकतर सिविल या मैकेनिकल इंजीनियरिंग में जाते है। लेकिन अगर दूसरी राशि या शत्रु राशि का हो तो बेहद तकलीफों के बाद सफलता मिलती है। अधिकांश मामलों में कम स्तर के मशीनरी कामकाज से व्यक्ति जुदा हो जाता है।
राहू :- अचानक लॉटरी से, सट्‍टे से या शेयर से व्यक्ति को लाभ मिलता है। ऐसे जातक राजनीति में विशेष रूप सफल रहते हैं।
केतु :- केतु की दशम में स्थिति संदिग्ध मानी जाती है किंतु अगर साथ में अच्छे ग्रह हो तो उसी ग्रह के अनुसार फल मिलता है लेकिन अकेला होने या पाप प्रभाव में होने पर के‍तु व्यक्ति को करियर के क्षेत्र में डूबो देता है।

कुंडली में योग और आपका करियर

कुंडली में योग और आपका करियर करियर निर्धारण में सबसे प्रमुख चीज है सही विषय का चुनाव! बच्चे की जिस विषय में [साइंस, आट्र्स या कॉमर्स] सबसे ज्यादा रूचि होगी, उसी में वह अपनी प्रतिभा का सही प्रदर्शन कर सकेगा और उसका करियर भी उज्ज्वल होगा। दूसरा तरीका है किसी विशेषज्ञ की सलाह लें। यदि आप चाहें, तो ज्योतिष की सहायता से भी करियर निर्धारण में सहायता ले सकते हैं।करियर निर्धारण में जन्म कुंडली से दशम भाव एवं दशमेश, दशमेश की नवांश राशि का स्वामी ग्रह और कुंडली में बनने वाले अन्य योगों से करियर निर्धारण में मदद मिलती है।
इंजीनियर बनने के योगज्योतिषशास्त्र में सूर्य, मंगल, शनि व राहु-केतु को पाप ग्रह माना है, किंतु पंचम भाव या पंचमेश से संबंध करने पर ये ग्रह जातक की तकनीकी क्षमता बढ़ा देते हैं। दशम भाव या दशमेश से मंगल, शनि, राहु-केतु का संबंध होने पर जातक को तकनीकी क्षेत्र में आजीविका मिलती है। अर्थात वह इंजीनियरिंग के क्षेत्र में सफल होता है।
डॉक्टर बनने के योगसूर्य स्वास्थ्य का कारक माना गया है। मंगल भुजबल, उत्साह व कार्य शक्ति का कारक है। गुरू ज्ञान और सुख का। इसलिए सूर्य, मंगल व गुरू यदि जन्म कुंडली में बली हों, तो व्यक्ति कुशल चिकित्सक बनता है।
वकील या न्यायाधीश बनने के योगनवम भाव द्वारा धर्म, नीति-नियम व न्याय प्रियता का तथा षष्ठ भाव से कोर्ट कचहरी संबंधी विवादों का विचार किया जाता है। दशमेश का नवम या षष्ठ भाव से संबंध होने पर व्यक्ति वकील बनता है। दंड व सुख का कारक शनि, यदि दशम भाव में उच्चस्थ हो अथवा गुरू उच्चस्थ या स्वक्षेत्री होकर, दशम भाव या दशमेश से दृष्टि-युति संबंध करें, तो जातक वकील या जज बनता है।
उद्योगपति व व्यवसायी बनने के योगसूर्य, चंद्र व मंगल इस वर्ग के महžवपूर्ण कारक ग्रह हैं। व्यापार का कारक बुध को माना गया है। कुंडली में प्रबल धन योग, जातक को कुशल व्यवसायी या उद्योगपति के रू प में प्रतिष्ठित कर उसे धनी बनाता है।
सेना या पुलिस अधिकारी बनने के योगमंगल को बल, पराक्रम व साहस का प्रतीक माना है। कुंडली में मंगल बली होने पर जातक को सेना या पुलिस में करियर प्राप्त कराता है। दशमेश या दशमेश का नियंत्रक मंगल जातक को सेना या पुलिस में आजीविका दिलाता है और उसका कòरियर सफल रहता है।

सीए बनने के योगबुध का संबंध व्यापारिक खातों से तथा गुरू का संबंध उच्च शिक्षा, परामर्श एवं मंत्रणा से है। बुध व गुरू का बली होकर दशम भाव से संबंध करना जातक को लेखाकर (सीए) बनाता है। द्वितीय भाव का संबंध वित्त व वित्तीय प्रबंध से है। बुध का संबंध द्वितीय, पंचम अथवा दशम भाव से हो तो चार्टर्ड एकाउंटेंट बनाता है।
बैंक अधिकारीकुंडली में यदि बुध, गुरू व द्वितीयेश का दृष्टि-युति संबंध दशम भाव या दशमेश से हो, तो जातक बैंक अधिकारी, वित्त प्रबंधक या लेखाकार बनता है। गुरू मंत्रणा का नैसर्गिक कारक ग्रह यदि दशम भाव, पंचम भाव, बुध या द्वितीय भाव से संबंध करे, तब भी जातक लेखाकार बनकर धन व मान-प्रतिष्ठा पाता है।
लेक्चरार या प्रोफेसर बनने के योगपंचमेश व चतुर्थेश का राशि परिवर्तन, दशमेश शुक्र का लाभस्थ होकर पंचम भाव को देखना तथा पंचमेश गुरू की दशम भाव पर दृष्टि, शिक्षा के क्षेत्र से आजीविका का योग बनाती है। दशमेश का संबंध बुध व गुरू से होने पर जातक लेक्चरार बनता है।पूर्ण जानकारी के लिए किसी विशेषज्ञ की सलाह लें।

Thursday, August 6, 2009

जन्म कुंडली का सबसे महत्वपूर्ण भाव दशम भाव

जन्म कुंडली का सबसे महत्वपूर्ण भाव दशम भाव होता है। दशम भाव पिता, व्यापार, उच्च नौकरी, राजनीति, राजसुख, प्रतिष्ठा, विश्वविख्याति का कारक भाव माना जाता है। इसे कर्म भाव भी कहते हैं। जातक अपने कर्म से महान विख्यात एवं यशस्वी भी होता है और अपने पिता का नाम रोशन करने वाला भी होता है। यदि इस भाव का स्वामी बलवान होकर कहीं भी हो उस प्रकार से फल प्रदाता होता है।

दशमेश का मतलब होता है दशम भाव में जो भी राशि नंबर होगा, उस भाव के स्वामी को दशमेश कहा जाएगा। यथा दशम भाव में कुंभ यानी 11 नंबर लिखे होंगे तो उसका स्वामी शनि होगा। यदि इस भाव में 5 नंबर लिखा है तो सिंह राशि होगी, यदि 12 नंबर लिखा है तो मीन राशि होगी।

दशमेश नवांश कुंडली में जिस ग्रह की राशि में होता है उसी ग्रह के कारकत्व अनुरूप व्यवसाय व्यक्ति के लिए लाभदायक होता है। ग्रहों के कारकत्व निम्न प्रकार है -

*सूर्य राज्य, फल-फूल, वृक्ष, पशु, वन, दवा, चिकित्सा, नेत्र, कंबल, लकड़ी, भूषण, मंत्र, भूमि, यात्रा, अग्नि, आत्मा, पिता, लाल चंदन, पराक्रम, धैर्य, साहस, न्याय प्रियता, गेहूं, घी ।

*चंद्र जलीय पदार्थ, पशुपालन, डेरी उद्योग, कपड़ा, सुगंधित पदार्थ, कल्पना शक्ति, नेत्र, स्त्री सहयोग, भेड़, बकरी, स्त्री संबंधी पदार्थ, कृषि, गन्ना, चांदी, चावल, सफेद वस्त्र, सिल्क का कपड़ा, चमकीली वस्तु, यात्रा, तालाब, क्षय रोग, खारी वस्तुएं, माता, मन, प्रजा।

*मंगल भूमि, अग्नि, गरमी, घाव, राज्य सेवा, पुलिस, फौज, शस्त्र, युद्ध, बिजली, राज दरबार, मिट्टी से बनी वस्तुएं, डैंटिस्ट, अनुशासन, स्पोर्ट्स, तांबा, रक्त चंदन, मसूर, गुड़, ज्वलनशील पदार्थ।

*बुध विद्या, गणित ज्ञान, लेखन वृत्ति, काव्यगम, ज्योतिष, हरी वस्तुएं, शिल्प, दलाली, कमीशन, वाक शक्ति, त्वचा, चिकित्सा, वकालत, अध्यापन, संपादन, प्रकाशन, अभिनय, हास परिहास, व्याकरण, रत्न पारखी, कांसा, डाक्टर, गला, नाचना, पुरोहित।

*गुरु शिक्षक, तर्क, मंदिर, मठ, देवालय, धर्म, नीतिज्ञ, राजा, सेना, तप, दान, परोपकार, पीला रंग, वेद-पुराण आदि से उपदेश, धन, न्याय, वाहन, परमार्थ, स्वास्थ्य, घी, चने, गेहूं, हल्दी, जौ, प्याज, लहसून, मोम, ऊन, पुखराज।

*शुक्र रूप सौंदर्य, भोग विलास एवं सांसारिक सुख, सुगंधित एवं श्रंगारिक प्रसाधन, श्वेत एवं रेशमी वस्त्र, चांदी, आभूषण, गीत-संगीत, नृत्य, गायन, वाद्य, सिनेमा, अभिनेता, उत्तम वस्त्रों का व्यवसाय, मंत्री पद, सलाहकार, जलीय स्थान, दक्षिण पूर्व दिशा।

*शनि मजदूर एवं दास वर्ग, शारीरिक परिश्रम, कारखाने, वनस्पति, नौकरी, निंदित कार्यो से धनोपार्जन, हाथी, घोड़ा, चमड़ा, लोहा, मिथ्या भाषण, कृषि, शस्त्रागार, सीसा, तेल, लकड़ी, विष, पशु, ठेकेदारी।

*राहु गुप्त धन, लॉटरी, शेयर, विष, तिल, तेल, लोहा, वायुयान संबंधी ज्ञान, मशीनरी, चित्रकारी, फोटोग्राफी, वैद्यक, जासूसी अनुसंधान, कंबल, गोमेद।

*केतु गुप्त विद्या, वैराग्य, तीर्थाटन, भिक्षावृत्ति, चर्म रोग, काले वस्त्र, कंबल, विष, शस्त्र, फोड़ा, फुंसी, गर्भपात, चेचक, अत्यंत कठिन कार्य, मंत्रसिद्धि, तत्वज्ञान, दु:ख, शोक, संघर्ष।

कारकत्व शब्दों तक ही सीमित नहीं इनकी परिधि अत्यंत विस्तृत है - जैसे ‘राज्य’ शब्द सूर्य का कारकत्व है। इस छोटे से शब्द में राजा, मंत्री, गवर्नर, राष्ट्रपति, छोटे-मोटे तमाम सरकारी कर्मचारी व अधिकारी, राजनेता, विधायक, सांसद आदि सभी वर्ग जिनका परोक्ष अथवा अपरोक्ष रूप में सरकार से किसी न किसी प्रकार से कोई संबंध है, शामिल हैं। जन्म कुंडली का एकादश भाव ‘आय भाव’ तथा द्वितीय भाव ‘धन भाव’ कहलाता है। इनके स्वामियों के बलाबल और आपस में संबंध के आधार पर व्यवसाय संबंधी आय व धन का विचार किया जाता है।

दशम स्थान स्थित राशि की दिशा में अथवा दशमेश जिस नवांश में होगा, उस नवांश संबंधी राशि की दिशा में व्यवसाय संबंधी लाभ होगा। मेष, सिंह व धनु राशियां ‘पूर्व’ दिशा की स्वामी है। मिथुन, तुला व कुंभ राशियां ‘पश्चिम’ दिशा की स्वामी है। कर्क, वृश्चिक व मीन राशियां ‘उत्तर’ दिशा की स्वामी है तथा वृष, कन्या तथा मकर राशियां ‘दक्षिण’ दिशा की स्वामी है। उपरोक्त विचार ‘लग्न कुंडली’ के साथ ‘चंद्र कुंडली’ व ‘सूर्य कुंडली’ से भी करने पर सूक्ष्म निष्कर्ष पर पहुंचने में काफी सहायता मिलेगी।

कुछ रोचक बाते :

* लग्न का स्वामी और दशम भाव का स्वामी यदि एक साथ हों तो ऐसा जातक नौकरी में विशेष उन्नति पाता है।

* दशमेश के साथ शुक्र हो और द्वादश भाव में बुध हो तो वह जातक महात्मा, पुण्यात्मा होता है, लेकिन दशमेश व शुक्र केंद्र में होना चाहिए।

* दशम भाव का स्वामी केंद्र या त्रिकोण (पंचम, नवम भाव को कहते है) में हो तो वह जातक राजपत्रित अधिकारी होता है।

* दशम भाव में स्वराशिस्थ सूर्य पिता से धन लाभ दिलाता है।

* दशम भाव में मीन या धनु राशि हो और उसका स्वामी गुरु यदि त्रिकोण में हो तो वह सभी सुखों को पाने वाला होता है।

* दशम भाव का स्वामी उच्च का होकर कहीं भी हो तो वह अपने बल-पराक्रम से सभी कार्यों में सफलता पाता है।

* पंचम भाव में गुरु व दशम भाव में चंद्रमा शुभ स्थिति में हो तो वह जातक विवेकशील, बुद्धिमान व तपस्वी होता है।

* एकादश भाव का स्वामी दशम में व दशम भाव का स्वामी एकादश भाव में हो या नवम भाव का स्वामी दशम में और दशम भाव का स्वामी नवम भाव में हो तो ऐसा जातक लोकप्रिय, शासक यानी मंत्री या कलेक्टर भी हो सकता है।

* लग्न का स्वामी व दशम भाव का स्वामी बलवान यानी अपनी राशि में हो या उच्च राशि में हो तो वह जातक प्रतिष्ठित, विश्वविख्यात तथा यशस्वी होता है।

* दशम भाव में शुक्र-चंद्र की युति जातक को चिकित्सक बना देती है।

* कन्या या मीन लग्न हो और उसका स्वामी उच्च या अपनी राशि में हो तो वह जातक अपने द्वारा अर्जित धन से उत्तम कार्य करता हुआ संपूर्ण सुखों को भोगने वाला होता है।

* दशम भाव में उच्च का मंगल या स्वराशि का मंगल सप्तम भाव में मंत्री या पुलिस विभाग में उच्च पद दिलाता है।

* दशम भाव में उच्च का सूर्य कर्क लग्न में होगा तो उस जातक को धन, कुटुंब से परिपूर्ण बनाएगा व उच्च पदाधिकारी भी बनाएगा।

नौकरी और कारोबार पर शनि का प्रभाव

नौकरी और कारोबार पर शनि का प्रभाव

9 सितम्बर 2009 के उपरांत शनि साढे़साती का फल विचारवर्ष 2009 में 16 सितम्बर को शनि कन्या राशि में तथा उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में भ्रमण करेंगे तथा पूरे साल कन्या राशि में ही रहेंगे। लगभग साढ़े तीन माह में विभिन्न राशियों पर पड़ने वाले गोचर के प्रभाव को यहां उल्लेखित किया जा रहा है।
मेष: मेष राशि के जातकों के लिए शनि छठे भाव में आए हैं। शत्रु , बीमारी तथा कर्जे से मुक्ति मिलेगी। वैवाहिक जीवन का आनंद उठाएंगे तथा धन प्राप्ति के योग बनेंगे।
वृष: शनि पंचम भाव में विचरण करेंगे। विवादों एवं झूठे प्रत्यारोप धन हानि की ओर संकेत देते हैं। मानसिक तनाव के साथ-साथ संतान से मतभेद की स्थिति आ सकती है।
मिथुन: शनि की लघु कल्याणी ढैया चलेगी। पारिवारिक विवादों असंतुष्टि आर्थिक हानि के साथ-साथ खर्चों में वृद्धि से परेशानी बनेगी। विवाद तथा खिन्नता रहेगी।
कर्क: तृतीय भाव में शनि सफलता , आनंद , उत्सव , नौकरी अथवा व्यापार में उन्नति के साथ-साथ धन लाभ के योग बनेंगे। शत्रुओं की पराजय के साथ-साथ सम्मान के पात्र भी बनेंगे।
सिंह: स्वास्थ्य में कमी , धन हानि विवादों तथा अनावश्यक खर्चों से परेशानी का अनुभव होगा। मानसिक अशांति , पत्नी के स्वास्थ्य में गिरावट , शत्रु बाधा से परेशानी अनुभव करेंगे। शनि साढ़ेसाती की अंतिम ढैया से भी परेशानी एवं धन हानि के योग बनेंगे।
कन्या: शनि साढ़ेसाती मध्य में रहेगी। पारिवारिक सदस्यों के स्वास्थ्य में कमी के कारण परेशानी होगी। शत्रुओं से भय प्राप्त , सम्मान हानि के योग बनेंगे। प्रयासों में असफलता तथा खर्चों में बढ़ोत्तरी के कारण परेशान रहेंगे।
तुला: शनि साढ़ेसाती की प्रथम ढैया रहेगी। दुर्घटना से खतरा रहेगा। परिवार में विवाद तथा कानूनी विवाद उत्पन्न हो सकते हैं।
वृश्चिक: धन लाभ के साथ-साथ स्थाई सम्पत्ति का लाभ प्राप्त होने के योग बनेंगे। सम्मान उन्नति के अवसर प्राप्त होंगे और पारिवारिक प्रसन्नता रहेगी।
धनु: बीमारी तथा परिवार में अशान्ति बनने से खिन्नता रहेगी। धन हानि के संकेत भी हैं। विवादों से बचें। सम्मान में कमी का अनुभव करेंगे।
मकर: आय में कमी तथा शत्रु बाधा से परेशानी होगी। प्रयासों में असफलता से खिन्नता का अनुभव करेंगे। विवादों तथा झगड़े झंझटों से बचना बेहतर रहेगा।
कुंभ : परिवार में विवाद , स्वास्थ्य में गिरावट , पत्नी को कष्ट रिश्तेदारों से अनबन तथा निन्दा के पात्र बनेंगे। असफलता के कारण खिन्नता , शत्रुओं द्वारा नुकसान की संभावना रहेगी। शनि की अष्टम लघु कल्याणी ढैया बड़ी परेशानी का कारण बन सकती है।
मीन: परिवार में अलगाव खर्च में बढ़ोतरी से परेशानी , स्वास्थ्य में कमी तथा सदूर कष्टदायी यात्रा का योग है। पत्नी का स्वास्थ्य भी प्रभावित हो सकता है।

ज्योतिष के अनुसार व्यक्ति के शरीर का संचालन

ज्योतिष विज्ञान को मानने वाले वैदिक शोधकर्ताओं का मानना है कि ज्योतिष के अनुसार व्यक्ति के शरीर का संचालन भी ग्रहों के अनुसार होता है। सूर्य आँखों, चंद्रमा मन, मंगल रक्त संचार, बुध हृदय, बृहस्पति बुद्धि, शुक्र प्रत्येक रस तथा शनि, राहू और केतु उदर का स्वामी है। शनि अगर बलवान है तो नौकरी और व्यापार में विशेष लाभ होता है। गृहस्थ जीवन सुचारु चलता है। लेकिन अगर शनि का प्रकोप है तो व्यक्ति को बात-बात पर क्रोध आता है। निर्णय शक्ति काम नहीं करती, गृहस्थी में कलह और व्यापार में तबाही होती है।आजकल वैदिक अनुसंधान में जप द्वारा ग्रहों के कुप्रभाव से बचाव व ग्रहों की स्थिति अनुकूल करके, व्यक्ति को लाभ पहुँचाने के लिए अनुसंधान कार्य चल रहे हैं। कई वैदिक वैज्ञानिक कर्म में विश्वास रखते हैं लेकिन पर्याप्त कर्म के बाद अपेक्षित फल न मिल पाना, वह ग्रहों का कुप्रभाव मानते हैं। वे घरेलू क्लेश, संपत्ति विवाद, व्यवसाय व नौकरी में अड़चनें ही नहीं, ब्लडप्रेशर, कफ, खाँसी और चेहरे की झाइयाँ जप द्वारा ही दूर करने का दावा करते हैं।
ज्योतिष के अनुसार व्यक्ति के शरीर का संचालन भी ग्रहों के अनुसार होता है। सूर्य आँखों, चंद्रमा मन, मंगल रक्त संचार, बुध हृदय, बृहस्पति बुद्धि, शुक्र प्रत्येक रस तथा शनि, राहू और केतु उदर का स्वामी है।
सूर्य : सूर्य धरती का जीवनदाता, लेकिन एक क्रूर ग्रह है, वह मानव स्वभाव में तेजी लाता है। यह ग्रह कमजोर होने पर सिर में दर्द, आँखों का रोग तथा टाइफाइड आदि रोग होते हैं। किन्तु अगर सूर्य उच्च राशि में है तो सत्तासुख, पदार्थ और वैभव दिलाता है। अगर सूर्य के गलत प्रभाव सामने आ रहे हों तो सूर्य के दिन यानी रविवार को उपवास तथा माणिक्य लालड़ी तामड़ा अथवा महसूरी रत्न को धारण किया जा सकता है। सूर्य को अनुकूल करने के लिए मंत्र-'ॐ हाम्‌ हौम्‌ सः सूर्याय नमः' का एक लाख 47 हजार बार विधिवत जाप करना चाहिए। यह पाठ थोड़ा-थोड़ा करके कई दिन में पूरा किया जा सकता है।
चंद्रमा : चंद्रमा एक शुभ ग्रह है लेकिन उसका फल अशुभ भी होता है। यदि चंद्रमा उच्च है तो व्यक्ति को अपार यश और ऐश्वर्य मिलता है, लेकिन अगर नीच का है तो व्यक्ति खाँसी, नजला, जुकाम जैसे रोगों से घिरा रहता है। चंद्रमा के प्रभाव को अनुकूल करने के लिए सोमवारका व्रत तथा सफेद खाद्य वस्तुओं का सेवन करना चाहिए। पुखराज और मोती पहना जा सकता है। मंत्र 'ॐ श्राम्‌ श्रीम्‌ श्रौम्‌ सः चंद्राय नमः' का 2 लाख 31 हजार बार जप करना चाहिए।
मंगल : यह महापराक्रमी ग्रह है। कर्क, वृश्चिक, मीन तीनों राशियों पर उसका अधिकार है। यह लड़ाई-झगड़ा, दंगाफसाद का प्रेरक है। इससे पित्त, वायु, रक्तचाप, कर्णरोग, खुजली, उदर, रज, बवासीर आदि रोग होते हैं। अगर कुंडली में मंगल नीच का है तो तबाही कर देता है। बड़ी-बड़ी दुर्घटनाएँ, भूकंप, सूखा भी मंगल के कुप्रभावों के प्रतीकमाने जाते हैं, लेकिन अगर मंगल उच्च का है तो वह व्यक्ति कामक्रीड़ा में चंचल, तमोगुणी तथा व्यक्तित्व का धनी होता है। वे अथाह संपत्ति भी खरीदते हैं। मंगल का प्रभाव अनुकूल करने के लिए मूँगा धारण किया जा सकता है। ताँबे के बर्तन में खाद्य वस्तु दान करने और मंत्र'ॐ क्रम्‌ क्रीम्‌ क्रौम सः भौमाय नमः' का जाप 2 लाख 10 हजार बार करने से लाभ हो सकता है।
बुध : यह वैसे हरियाली तथा हृदय कारक प्रतीक है, लेकिन इसे नपुंसक ग्रह भी कहते हैं। बुध ग्रह अगर नीच का है तो पति-पत्नी में अविश्वास बढ़ाकर दांपत्य जीवन चौपट कर देता है। इससे खाँसी, हृदय रोग, कोढ़, पागलपन, दमा आदि रोग होते हैं। अगर बुध उच्च का है तो बेपनाह धन, यश और बल मिलता है। मंत्र 'ॐ ब्राम्‌ ब्रीम्‌ ब्रौम्‌ सः बुधाय नमः' का तीन लाख 99 हजार बार जाप करने से राहत मिलती है। बृहस्पति : यह बुद्धि तथा विद्या का स्वामी है। अगर यह नीच का है तो व्यक्ति की बुद्धि हर कर अच्छे समय पर भी गलत काम करवा देगा। कोई काम पूरा नहीं होने देगा। आमतौर पर इससे कुष्ठ रोग, गुप्त रोग, फोड़ा आदि होते हैं। इसके निदान के लिए बृहस्पतिवार को पीलीवस्तुएँ जैसे चने की दाल दान करने, रत्नों में पुखराज, सोनेला, धीया, केरु, केसरी या सुन्हला धारण करने और मंत्र 'ॐ ग्राम्‌ ग्रीम्‌ ग्रौम्‌ सः गुरुवे नमः' का जप राहत दे सकता है।
शुक्र : यह रसों का स्वामी है। अगर यह उच्च का है तो भोग-विलास का आनंद मिलता है, लेकिन नीच का है तो महिला में बाँझपन और पुरुष में नपुंसकता देता है। इसके निवारण के लिए हीरा, पुखराज, करगी तथा सिक्का रत्न धारण किए जा सकते हैं। मंत्र 'ॐ द्राम्‌ द्रीम्‌ द्रौम्‌ सः शुक्राय नमः' के तीन लाख 31 हजार बार जप से राहत मिल सकती है।
इसकी दशा खराब चल रही हो तो व्यक्ति की मति मारी जाती है। वह कुसंगति में पड़कर अपना सब कुछ गँवा बैठता है। बच्चों और पत्नी को संकट में डाल देता है। यानी बात का बतंगड़ बनाकर अपयश दिलाना राहू का काम है। इससे अनिद्रा, पागलपन व उदर के रोग हो जाते हैं।
शनि : यह अगर बलवान है तो नौकरी और व्यापार में विशेष लाभ होता है। गृहस्थ जीवन सुचारु चलता है, लेकिन अगर शनि का प्रकोप है तो व्यक्ति को बात-बात पर क्रोध आता है। निर्णय शक्ति काम नहीं करती, गृहस्थी में कलह और व्यापार में तबाही होती है। शनि के प्रकोप से टीबी, कैंसर, अल्सर, गठिया, स्नायु रोग, उन्माद और वात रोग होते हैं। इसके लिए रत्न नीलम, लीतिया, जमुनिया और नीली कटहला पहना जा सकता है। पर अक्सर नीलम से और अनिष्ट हो जाता है, इसके लिए तेल के दीपक में नीलम डालकर उसके साथ जल रखकर मंत्र 'ॐ प्राम्‌ प्रीम्‌प्रौम्‌ सः शनैश्चराय नमः' का जाप करना चाहिए। इसके अलावा दान और गौसेवा आदि भी करने की वैदिक वैज्ञानिक सलाह देते हैं। वैसे मंत्र का जाप चार लाख 83 हजार बार करना चाहिए। इस जाप को भी कई दिनों में बारी-बारी से किया जा सकता है। राहू : इसकी दशा खराब चल रही हो तो व्यक्ति की मति मारी जाती है। वह कुसंगति में पड़कर अपना सब कुछ गँवा बैठता है। बच्चों और पत्नी को संकट में डाल देता है। यानी बात का बतंगड़ बनाकर अपयश दिलाना राहू का काम है। इससे अनिद्रा, पागलपन व उदर के रोग हो जाते हैं। लेकिन अगर राहू मेहरबान है तो यह बेपनाह धन की प्राप्ति भी कराता है। रत्नों में गोमेद, सुरसा साफा पहनने और मंत्र 'ॐ भ्राम्‌ भ्रीम्‌ भ्रौम्‌ सः राहुवे नमः' का जप 3 लाख 71 हजार बार करने से लाभ हो सकता है।
केतु : कुंडली में केतु की कोई जगह नहीं होती। यह हमेशा किसी ग्रह के साथ मिलकर नफा-नुकसान पहुँचाता है। यह यदि उच्च का हो तो खेती, भवन ठेकेदारी, दवाइयों का व्यापार, फौज, पशुपालन, डॉक्टरी में लाभ पहुँचाता है और निम्न का हो तो हर बने-बनाए काम को आखिरी समय में बिगाड़ देता है। यह चर्मरोग, पेट के रोग, दुर्घटनाओं का जनक भी होता है। रत्न, वैदुर्य, लहसुनिया, गोदंत, संगी पहनने और मंत्र 'ॐ स्त्रौम्‌ सः केतवे नमः' का तीन लाख 51 हजार बार जप करने से इसका प्रभाव खत्म किया जा सकता है।

ग्रह बताएँ रोग

पहला सुख निरोगी काया होता है। बीमारी एक ऐसी विपत्ति है जिसे न केवल सहने वाला दु:खी होता है वरन सारा परिवार उससे प्रभावित हो जाता है। रोगों के अध्ययन में छठा प्रमुख भाव मु‍ख्य रूप से अध्ययन में लिया जाता है। छठे, आठवें, बारहवें भाव के स्वामी भी स्थान हानि करते हैं।सदा रोगी रखने वाले योग· ग्यारहवें स्थान का स्वामी छठे स्थान से निर्बल होकर पड़ा हो।· शनि पाँचवें, नौवें या बारहवें घर में हो व उसके साथ पाप ग्रह हों या पाप ग्रहों की दृष्टि हो।· आठवें स्थान का स्वामी छठे, आठवें या बारहवें स्थान में हो।· लग्नेश निर्बल हो, छठे स्थान में शनि-मंगल और बारहवें स्थान में सूर्य हो।
पहला सुख निरोगी काया होता है। बीमारी एक ऐसी विपत्ति है जिसे न केवल सहने वाला दु:खी होता है वरन सारा परिवार उससे प्रभावित हो जाता है। रोगों के अध्ययन में छठा प्रमुख भाव मु‍ख्य रूप से अध्ययन में लिया जाता है।
अन्य रोगों के संकेत· छठे स्थान का स्वामी पाप ग्रहों के साथ आठवें स्थान में बैठे तो शरीर में फोड़े-फुंसियाँ होती हैं।· दशम स्थान में शनि-मंगल हों या सूर्य, शुक्र, शनि पाँचवें घर में हो या छठे-सातवें घर में कई पाप ग्रह हों, शुक्र नीच या निर्बल हो तो मूत्राशय-जननेन्द्रिय संबंधी रोग होते हैं।· चंद्र-राहु आठवें स्थान में हों या शनि-मंगल छठे-आठवें में हों या लग्न में सूर्य-चंद्र-मंगल-राहु की दृष्टि में होने पर मिर्गी या हिस्टीरिया रोग होता है।· निर्बल गुरु बारहवें भाव में हो या छठे स्थान का स्वामी बुध और मंगल के साथ सातवें या पाँचवें स्थान में हो तो गुप्त रोग होने की आशंका होती है।· बुध छठे या व्यय स्थान में हो तो त्वचा के रोग होते हैं।· चंद्रमा छठे भाव में हो, नीच राशि में हो तो साँस, गले, वाणी के रोग होते हैं।· सूर्य की लग्न, दूसरे या बारहवें भाव पर दृष्टि नेत्ररोग देती है।· मंगल की लग्न पर दृष्टि होने या लग्न में उपस्थित होने से दाँतों के रोग होते हैं।· गुरु का छठे-आठवें-बारहवें होना लीवर-पेट के रोग देता है। राहु भी निर्बल होने (पाँचवें भाव में) पर पेट रोग देता है।कुंडली में रोगसूचक योग होने पर भी यदि व्यक्ति आचार-विचार और आहार में संयमी रहे तो ग्रहों के दोष कम जाते हैं। अनिष्टकारी ग्रहों के प्रभाव को कम करने वाले पदार्थों का सेवन करने से रोगों से बचाव किया जा सकता है।

नेल पॉलिश-राशि अनुसार

ज्योतिष में रंगों का विशेष महžव बताया गया है। राशि अनुसार अनुकूल रंगों के प्रयोग से संबंधित ग्रह की अनुकूलता में वृद्धि होती है। चीनी ज्योतिष के अनुसार भी अलग-अलग रंगों की प्रवृत्ति अलग-अलग होने के कारण मानव की प्रवृत्ति पर असर करते हैं। शरीर के लिए भी अनुकूल रंगों के प्रयोग करने से सकारात्मक ऊर्जा “ची” को संतुलित कर समन्वय किया जा सकता है। इससे सुख-समृद्धि में वृद्धि होती है। इसी क्रम में महिलाओं द्वारा प्रयोग की जाने वाली नाखून पॉलिश का रंग यदि उनकी राशि के अनुरूप हो तो संबंधित राशि स्वामी के कारक में वृद्धि तथा शुभ फलों की प्राप्ति होती है।

मेष राशि- मेष राशि की महिलाएं लालिमायुक्त, सफेद, क्रीमी तथा मेहरून रंग की नेल पॉलिश प्रयोग में लाएं।

वृष राशि- लाल, सफेद, गेहूंआ या गुलाबी रंग या इनसे मिश्रित रंगों की नेल पॉलिश लगाएं।

मिथुन- आपके लिए हरी, फिरोजी, सुनहरा सफेद या सफेद रंग की नेल पॉलिश उपयुक्त रहेगी।

कर्क- श्वेत व लाल या इनसे मिश्रित रंग अथवा लालिमायुक्त सफेद रंग की नेल पॉलिश का प्रयोग उपयोगी रहेगा।

सिंह- गुलाबी, सफेद, गेरूआ, फिरोजी तथा लालिमायुक्त सफेद रंग उपयुक्त है।

कन्या- आप हरे, फिरोजी व सफेद रंग की नेल पॉलिश लगाएं।

तुला- जामुनी, सफेद, गुलाबी, नीली, ऑफ व्हाइट एवं आसमानी रंग की नेल पॉलिश अनुकूल रहेगी।

वृश्चिक- सुनहरी सफेद, मेहरून, गेरूआ, लाल, चमकीली गुलाबी या इन रंगों से मिश्रित रंग की नेल पॉलिश लगाएं।

धनु- पीला, सुनहरा, चमकदार सफेद, गुलाबी या लालिमायुक्त पीले रंग की पॉलिश लगाएं।

मकर- सफेद, चमकीला सफेद, हल्का सुनहरी, मोरपंखी, बैंगनी तथा आसमानी रंग की नेल पॉलिश उपयुक्त है।

कुंभ- जामुनी, नीला, बैंगनी, आसमानी तथा चमकीला सफेद रंग उत्तम रहेगा।

मीन- पीला, सुनहरा, सफेद, बसंती रंगों का प्रयोग करें। सदा अनुकूल प्रभाव देंगे।

ऊपर बताए गए रंग राशि स्वामी तथा उनके मित्र ग्रहों के रंगों के अनुकूल हैं।

ज्योतिष चक्र द्वारा मानव रचना

ज्योतिष चक्र द्वारा मानव रचना

ज्योतिष वेद का एक महत्वपूर्ण अंग है। चारों वेदों के गूढ़ार्थों के विधिवत् ज्ञान के लिए वेदांगों में पारंगत होना आवश्यक है। जिस प्रकार हमारे शरीर के प्रमुख छह अंग हैं, वेदों के भी शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छन्द, ज्योतिष आदि के यह अंग माने गए हैं। छह वेदांगों में ज्योतिष को नेत्र की तरह उपयोगी अंग माना गया है। प्राचीन मनीषियाें ने अपने संदेशों में स्पष्ट कहा है कि प्रत्येक व्यक्ति को ज्योतिष का ज्ञान होना चाहिए। क्योंकि यह विद्या ही एक ऐसी विद्या है जो व्यक्ति को भूत−भविष्य व वर्तमान के बारे में पूरी जानकारी देती है। मनुष्यों को आने वाले सभी अच्छे−बुरे फलों के बारे में पहले से ही सभी जानकारी हमें नवग्रहों की स्थिति से मिल जाती है। इसलिए इस विद्या को ज्योतिरूपी चक्षु भी कहा जाता है। ग्रहों का असर मानव शरीर की उत्पत्ति पर भी पड़ता है। प्रकृति की उत्पत्ति नवग्रहों से होती है और जब मनुष्य उत्पन्न हो जाता है तो ग्रहों के अंश प्रत्येक मानव शरीर के अंदर रहते हैं।
मानव का शरीर माता के गर्भ में नौ महीने नौ दिन में तैयार होता है और प्रत्येक महीने के सात ग्रह स्वामी होते हैं। राहु−केतु को छोड़कर क्योंकि राहु−केतु छाया ग्रह हैं − ग्रह नहीं। परंतु उस छाया का भी प्रकृति पर प्रभाव पड़ता है। इसलिए इन्हें ग्रहों में शामिल किया गया है।
मनुष्य शरीर की उत्पत्ति − प्रथम महीना जब गर्भ ठहरता है तो उस महीने का स्वामी शुक्र होता है। उस महीने में गर्भ के अंदर केवल वीर्य रहता है और वीर्य का कारक ग्रह शुक्र होता है। शुक्र जल तत्व ग्रह है। इसलिए प्रथम महीने वीर्य में स्थित शुक्राणु स्त्री के डिंबाण में अवस्थित रज से मिलकर एक अंडे का रूप धारण कर लेता है और ठोस हो जाता है। इसीलिए प्रथम महीने गर्भ का पता नहीं चल पाता है।
द्वितीय महीना − द्वितीय महीने का स्वामी मंगल होता है। मंगल अगि् तत्व ग्रह होता है। इसलिए मंगल उस वीर्य रूपी ठोस अंडे को पिघला देता है और यह मांस का लोथड़ा सा बन जाता है। और पित्त तत्व बढ़ जाता है। इसलिए दूसरे महीने में महिलाओं को उल्टी व चक्कर आना शुरू हो जाता है और बेचैनी बढ़ जाती है।
तृतीय महीना − तृतीय महीने का स्वामी बृहस्पति होता है। बृहस्पति जल तत्व ग्रह होता है। बृहस्पति उस मांस के लोथड़े को लड़का या लड़की के रूप में परिवर्तित कर देता है। शरीर के अंदर सबसे पहले गुप्त अंग ही बनते हैं। इसलिए गुप्तअंग में हड्डी नहीं होती है। तीसरे महीने में गर्भ के अंदर जीव पूर्ण बन जाता है। बृहस्पति जल तत्व होने के कारण पित्त प्रवृत्ति को अचानक रोक देता है। और गर्भवती महिला अद्भुत खुशी पैदा होती है।
चौथा महीने − चतुर्थ महीने का स्वामी सूर्य होता है। सूर्य हड्डी का कारक होता है। इसलिए चतुर्थ मास में उस मांस रूपी जीव के अंदर हड्डी बन जाती है और शरीर लगभग पूरा हो जाता है।
पंचम महीना − पंचम महीने का स्वामी चंद्रमा होता है। चंद्रमा जल तत्व ग्र है, इसलिए चंद्रमा उस शरीर के अंदर पानी उत्पन्न कर देता है। जिसे खून के रूप में जाना जाता है। पांचवे महीने में शरीर नसों, मांसपेशियों व नाड़ियों से पूर्ण हो जाता है।
छठा महीना − छठे महीने का स्वामी शनि होता है। इसलिए गर्भ रूपी शरीर में बाल उत्पन्न हो जाते हैं। क्योंकि शनि बालों व सुन्दरता का कारक ग्रह है। इसलिए छठे महीने में मानव की सुन्दरता, कुरुपता, गोरापन या कालापन तैयार हो जाता है। अर्थात शरीर पूर्ण रूप से तैयार हो जाता है।
सप्तम महीना − सातवें महीने का स्वामी बुध होता है। बुध बुद्धि का कारक ग्रह होता है। इसलिए गर्भ के अंदर मानव को पूर्ण रूप से बुद्धि प्राप्त हो जाती है। गर्भ के अंदर बच्चा पूर्ण रूप से हमारी सभी बाताें को समझने लगता है। इसलिए हमें जिस महिला को बच्चा होने वाला होता है उसे पति से अलग कर उसके मायके भेज देते हैं। या उन्हें पवित्र रहने के लिए सचेत कर देते हैं। छह महीने के बाद किसी भी महिला को टीवी पर या अन्य तरीके से अश्लीलता से बचना चाहिए। और अच्छे संस्कार वाले कार्यों में समय व्यतीत करना चाहिए। क्योंकि बच्चा भी वैसी सब बातों को सीख जाता है। सुभद्रा और अभिमन्यु का उदाहरण हमारे सामने है। उन्होंने गर्भ में ही चक्रव्यूह तोड़ना सीख लिया था। इसी प्रकार प्रहलाद भक्त का भी उदाहरण लिया जा सकता है।
अष्टम महीना − अष्टम महीने का स्वामी महिला लग्ेश होता है। वह ग्रह कोई भी हो सकता है। इसलिए अष्टम महीने में बहुत ही सावधानी बरतने की जरूरत है। क्योंकि महीने के स्वामी का पता नहीं होता है। अर्थात सभी के पास अपनी जन्मपत्री नहीं होती है। यदि अष्टम महीने में लग्ेश ग्रह पीड़ित हो जाए तो गर्भपात की संभावना बढ़ जाती है और शिशु की भी मृत्यु हो जाती है। जबकि किसी कारण सप्तम महीने में शिशु जन्म ले ले तो बच जाता है, परंतु अष्टम में नहीं। अष्टम महीना स्वयं से जुड़ा है, स्वयं को कष्ट देता है इसलिए इस मास में जन्मे शिशु के बचने की संभावना नहीं रहती है। इसलिए इस महीने विशेष सावधानी की जरूरत है।
नवम महीना − नवम महीने का स्वामी चन्द्रमा होता है और वह गर्भ के अंदर पेट में इतना पानी पैदा कर देता है कि शिशु आराम से हिल−डुल सके तथा आराम से जन्म ले सके।
दसवां महीना − दसवें महीने का स्वामी सूर्य होता है। सूर्य अगि् तत्व ग्रह है इसलिए पेट के अंदर गर्मी पैदा करके शिशु को माता के शरीर से अलग कर देता है। वह जिन मांस पेशियों में जकड़ा होता है उनसे छूट जाता है और आराम से जन्म ले लेता है। जब शिशु जन्म लेता है। इस प्रकार सातों ग्रहों का इस शरीर को बनाने में विशेष योगदान होता है।
षट चक्र − जैसे−जैसे मानव का शरीर बन रहा होता है तो उसके अंदर अन्य शरीर के पार्ट के साथ−साथ षटचक्रों के रूप में भी ग्रह और देवता इस शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। और भचक्र व मानव शरीर का आपस में सीधा संबंध हो जाता है। अर्थात उस परमात्मा से हमारा सीधा−सीधा संबंध षठचक्रों के माध्यम से हमेशा जुड़ा रहता है।
प्रथम चक्र − मूलाधार चक्र - यह प्रथम चक्र है। यह चक्र मानव शरीर में गुदा के पास होता है। और शरीर का यह अंग स्थान ही पूरे शरीर को संभालता है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार शनि भचक्र के बाहरी कक्षा का स्वामी होता है और पूरे भचक्र को संभालता है। इस चक्र का स्वामी श्ािन और शनि की दोनों राशियां मकर और कुंभ होती हैं। यदि किसी व्यक्ति का शनि या मकर कुंभ राशि पीड़ित हो तो इस चक्र के माध्यम से शरीर के अंदर रोग उत्पन्न होते हैं और व्यक्ति कष्ट पाता है। इस चक्र का रक्त वर्ण है, इस चक्र की अधिष्ठात्री देवी डाकिनी है। इसके चार व, श, ष, स वर्ण दल हैं। इस चक्र में भगवान शिव के अंश का वास होता है। मुख्यत: गणेश जी की स्थापना मानी जाती है। इसीलिए प्रथम चक्र से संबंध होने के कारण गणेश जी सर्वप्रथम आदरणीय व पूजनीय हैं। अर्थात इस चक्र का शिव संबंध होता है।
प्रत्येक व्यक्ति की जन्मपत्री में शनि और मकर−कुंभ राशि अलग−अलग भाव में होती हैं। पीड़ित ग्रह या राशि जिस भाव में हैं उस भाव में शरीर का जो भी अंग आता है, उस अंग में मूलाधार चक्र के माध्यम से रोग उत्पन्न होगा। पीड़ित होने को विशेषकर अष्टक वर्ग से देखना चाहिए। अष्टकवर्ग में मकर या कुंभ राशि में 21 या 21 से कम बिन्दु हों तो वह निर्बल होती है या शनि अपने भिनाष्टक वर्ग में शून्य या एक बिन्दु हो तो पीड़िता होता है। ऐसे स्थिति में योग कारक होते हुए भी रोग कारक हो जाता है। विशेषकर यदि ताराबल में तीसरी, पांचवीं या सातवीं तारा से संबंध हो जाए तो बहुत ही घातक हो जाता है।
सभी ग्रहों व राशियों को इसी प्रकार देखना चाहिए। जो ग्रह और उसकी राशि पीड़ित होगी तो वह जिस भाव से संबंध बना रहे हैं, उस भाव में जो शरीर का अंग आता है वह अपने चक्र के माध्यम से उस अंग में रोग उत्पन्न करेगा।
द्वितीय चक्र − स्वाधिष्ठान चक्र − यह चक्र लिंग के पास होता है। इस चक्र का स्वामी बृहस्पति धन व मीन राशि होती है बृहस्पति संतान के कारक ग्रह होता है इसलिए संतान की उत्पत्ति में इस चक्र की विशेष भूमिका होती है। यदि बृहस्पति या धनु−मीन राशि पीड़ित हों तो इस चक्र संबंधी समस्या होती है और संतान संबंधी कष्ट या बृहस्पति धनु−मीन राशि जिस भाव से संबंध बनाती हैं उस भाव संबंधी अंग में रोग होता है। इस चक्र का रक्त वर्ण है, इस चक्र की अधिष्ठात्री देवी शाकिनी हैं। इसेके छह ब, भ,म, य, र, ल वर्ण दल हैं। इसमें वालाख्य सिद्ध की स्थिति है।
इस चक्र के स्वामी देवता विष्णु भगवान व विष्णु के अंग होते हैं। इसलिए संतान प्राप्त हेतु गोपाल सहस्त्र नाम का पाठ किया जाता है और शरीर के सुख की प्राप्ति के लिए विष्णु सहस्र नाम का पाठ किया जाता है। आर्युवेद में कहा गया है कि वीर्यवान व्यक्ति ही सुखी जीवन जीता है। विष्णु भगवान के अंदर दोहरा गुण पाया जाता है। विष्णु भगवान पुरुष−स्त्री दोनों रूप धारण कर लेते हैं और मोहनी रूप का किसी को पता भी नहीं चलता है। क्योंकि शरीर के अंदर लिंग और गर्भाश्य दोनों से इसका संबंध रहता है। भगवान शिव एक बार गोपी बनकर बृज में पार्वती के साथ गोपी रास लीला में गये थे और तुरंत ही पहचाने गए अर्थात स्त्रीरूप धारण नहीं कर सकें क्योंकि उनका स्वादिष्टांत चक्र से कोई संबंध नहीं है।
तृतीय चक्र − मणिपूरक चक्र − यह चक्र नाभि के पास होता है। इस चक्र का स्वामी मंगल व मंगल की मेष व वृश्चिक राशि होती है। इस चक्र से शरीर को अगि् प्राप्त होती है तथा भोजन की पाचन क्रिया इसी चक्र पर निर्भर करती है। यदि मंगल या मेष−वृश्चिक राशि पीड़ित हो तो इस चक्र के माध्यम से व्यक्ति को कष्ट या रोग प्राप्त होगा। इस चक्र की अधिष्ठात्री देवी परम धार्मिक लाकिनी देवी हैं इसके दस ड, ढ, ण, त, थ, द, ध, न, प, फ वर्ण दल हैं। जहां रुद्राक्ष सिद्ध लिंग सब प्रकार के मंगलों का दान कर रहे हैं। मंगल या मंगल की राशि पीड़ित होने पर मुख्यत: व्यक्ति की नाभि अपने स्थान से हटी रहती है और इस कारण पाचन क्रिया खराब रहती है। इस चक्र के स्वामी देवता कार्तिकेय भगवान या हनुमान जी हैं।
चतुर्थ चक्र − अनाहत चक्र − यह चक्र हृदय में होता है। इस चक्र का स्वामी ग्रह शुक्र व वृषभ−तुला राशि होती हैं। शुक्र हृदय में निवास करता है। शुक्र प्रेम का कारक ग्रह है, जो व्यक्ति प्रेम से खुश रहते हैं, उन्हें जीवन में इस चक्र संबंधी रोग होने की संभावना नहीं होती है। परंतु यदि शुक्र या उसकी राशि पीड़ित हों तो इस चक्र के माध्यम से हृदय रोग या वृषभ तुला राशि जिस भाव से संबंध बना रही हैं उस भाव के अंग में रोग पैदा होता है। हृदय रोग उन्हीं व्यक्तियों को होता है जो तनावग्रस्त रहते हैं। इसलिए यदि खुश रहने की कोशिश की जाए और जो भगवान ने दिया है उतनी ही लक्ष्मी में गुजारा करने की कोशिश करें तो हृदय रोग से बचा जा सकता है। इस चक्र की स्वामी व देवता लक्ष्मी जी व उसके अंग होते हैं।
इस चक्र की अधिष्ठात्री देवी काकिनी हैं। इसके बारह क, ख, ग, घ, ड., च, छ, ज, झ,ञ्ज, ट, ठ, वर्ण दल हैं। इस अनाहत पद्म में परम तेजस्वी रक्त वर्ण वाण लिंग का अधिष्ठान है। जिसका ध्यान करने से इह लोक और परलोक में शुभफल की प्राप्ति होती है। दूसरे पिनाकी नामक सिद्ध लिंग है।
हनुमान जी राम और सीता जी को इसलिए प्रिय हैं क्योंकि वे मणिपूरक चक्र के माध्यम से विष्णु और लक्ष्मी के बीच में रहते हैं अर्थात विष्णु और लक्ष्मी ही राम व सीता हैं।
पंचम चक्र − विशुद्ध चक्र − यह चक्र कंठ में होता है। इस चक्र का स्वामी ग्रह बुध व मिथुन कन्या राशि होती है। इसलिए बुध वाणी का कारक ग्रह होता है। यदि बुध, मिथुन या कन्या राशि में से कोई पीड़ित हो तो कंठ या शरीर के जिस अंग से यह संबंध बना रहे हैं उस अंग में इस चक्र के द्वारा रोग होता है। इस चक्र का स्वर्ण वर्ण है, इस चक्र की अधिष्ठात्री देवी शाकिनी हैं। इसके षोडश अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, लृ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: वर्ण दल हैं।
इस चक्र के स्वामी व देवता विष्णु भगवान व उसके अंग मां सरस्वती होती हैं। इसीलिए किसी भी संगीत कार्य में सर्वप्रथम मां सरस्वती की आराधना की जाती है।
षठ चक्र − आज्ञा चक्र − यह चक्र मस्तिष्क के भौंह के बीच होता है। इस चक्र के सूर्य−चंद्रमा और इनकी राशि सिंह−कर्क राशि स्वामी होती हैं। यदि सूर्य−चन्द्रमा या कर्क−सिंह राशि पीड़ित हो तो इस चक्र के माध्यम से शरीर में रोग पैदा होता है। सूर्य पीड़ित हो तो दूर की रोशनी, चन्द्रमा पीड़ित हो तो नजदीक की रोशनी पीड़ित होती है। सूर्य−चन्द्रमा दोनों पीड़ित हों तो नेत्र रोग के साथ−साथ मष्तिस्क रोग भी होते हैं।
इस चक्र के स्वामी व देवता शिव व पार्वती होते हैं। अर्थात प्रथम व अंतिम दोनों जगह शिव का अधिकार है। इसलिए शिव ही जीवन दाता व मृत्यु दाता है।
हमारे सातों के सात ग्रह पहले शरीर की रचना करते हैं और उसके बाद षडचक्रों के माध्यम से इस शरीर में वास करते हैं। इस प्रकार दो भचक्रों की स्थापना हुई। आकाशीय ब्रह्मांड और दूसरा पिण्डीय ब्रह्मांड दोनों ब्रह्मांडों का आपस में चुम्बकीय भांति हर समय संबंध रहता है। इस संबंध की वजह से ही प्रत्येक ग्रह अपनी महादशा−अंतर्दशा में मनुष्य को उसके कर्मों के आधार पर फल देते हैं।

Wednesday, August 5, 2009

भगवती स्तोत्र

भगवती स्तोत्र

जय भगवति देवि नमो वरदे जय पापविनाशिनि बहुफलदे।
जय शुम्भनिशुम्भकपालधरे प्रणमामि तु देवि नरार्तिहरे॥1॥
जय चन्द्रदिवाकरनेत्रधरे जय पावकभूषितवक्त्रवरे।
जय भैरवदेहनिलीनपरे जय अन्धकदैत्यविशोषकरे॥2॥
जय महिषविमर्दिनि शूलकरे जय लोकसमस्तकपापहरे।
जय देवि पितामहविष्णुनते जय भास्करशक्रशिरोवनते॥3॥
जय षण्मुखसायुधईशनुते जय सागरगामिनि शम्भुनुते।
जय दु:खदरिद्रविनाशकरे जय पुत्रकलत्रविवृद्धिकरे॥4॥
जय देवि समस्तशरीरधरे जय नाकविदर्शिनि दु:खहरे।
जय व्याधिविनाशिनि मोक्ष करे जय वाञ्िछतदायिनि सिद्धिवरे॥5॥
एतद्व्यासकृतं स्तोत्रं य: पठेन्नियत: शुचि:।
गृहे वा शुद्धभावेन प्रीता भगवती सदा॥6॥

भावार्थ
हे वरदायिनी देवि! हे भगवति! तुम्हारी जय हो। हे पापों को नष्ट करने वाली और अनन्त फल देने वाली देवि। तुम्हारी जय हो! हे शुम्भनिशुम्भ के मुण्डों को धारण करने वाली देवि! तुम्हारी जय हो। हे मुष्यों की पीडा हरने वाली देवि! मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ॥1॥ हे सूर्य-चन्द्रमारूपी नेत्रों को धारण करने वाली! तुम्हारी जय हो। हे अग्नि के समान देदीप्यामान मुख से शोभित होने वाली! तुम्हारी जय हो। हे भैरव-शरीर में लीन रहने वाली और अन्धकासुरका शोषण करने वाली देवि! तुम्हारी जय हो, जय हो॥2॥ हे महिषसुर का मर्दन करने वाली, शूलधारिणी और लोक के समस्त पापों को दूर करने वाली भगवति! तुम्हारी जय हो। ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य और इन्द्र से नमस्कृत होने वाली हे देवि! तुम्हारी जय हो, जय हो॥3॥ सशस्त्र शङ्कर और कार्तिकेयजी के द्वारा वन्दित होने वाली देवि! तुम्हारी जय हो। शिव के द्वारा प्रशंसित एवं सागर में मिलने वाली गङ्गारूपिणि देवि! तुम्हारी जय हो। दु:ख और दरिद्रता का नाश तथा पुत्र-कलत्र की वृद्धि करने वाली हे देवि! तुम्हारी जय हो, जय हो॥4॥ हे देवि! तुम्हारी जय हो। तुम समस्त शरीरों को धारण करने वाली, स्वर्गलोक का दर्शन करानेवाली और दु:खहारिणी हो। हे व्यधिनाशिनी देवि! तुम्हारी जय हो। मोक्ष तुम्हारे करतलगत है, हे मनोवाच्छित फल देने वाली अष्ट सिद्धियों से सम्पन्न परा देवि! तुम्हारी जय हो॥5॥

महिमा
जो कहीं भी रहकर पवित्र भाव से नियमपूर्वक इस व्यासकृत स्तोत्र का पाठ करता है अथवा शुद्ध भाव से घर पर ही पाठ करता है, उसके ऊपर भगवती सदा ही प्रसन्न रहती हैं॥6॥

रचनाकार
भगवती के इस स्तोत्र की रचना व्यास जी ने की थी।

रुद्र का अंश है रुद्राक्ष

रुद्र का अंश है रुद्राक्षभगवान शंकर की उपासना में रुद्राक्ष का अत्यन्त महत्व है। रुद्राक्ष शब्द की शास्त्रीय विवेचना से यह स्पष्ट हो जाता है कि इसकी उत्पत्ति महादेव जी के अश्रुओं से हुई है- रुद्रस्य अक्षि रुद्राक्ष:, अक्ष्युपलक्षितम्अश्रु, तज्जन्य: वृक्ष:। शिवपुराणकी विद्येश्वरसंहितातथा श्रीमद्देवीभागवतमें इस संदर्भ में कथाएं मिलती हैं। उनका सारांश यह है कि अनेक वर्षो की समाधि के बाद जब सदाशिवने अपने नेत्र खोले, तब उनके नेत्रों से कुछ आँसू पृथ्वी पर गिरे। उन्हीं अश्रुबिन्दुओंसे रुद्राक्ष के महान वृक्ष उत्पन्न हुए।रुद्राक्ष धारण करने से तन-मन में पवित्रता का संचार होता है। रुद्राक्ष पापों के बडे से बडे समूह को भी भेद देते हैं। चार वर्णो के अनुरूप ये भी श्वेत, रक्त, पीत और कृष्ण वर्ण के होते हैं। ऋषियों का निर्देश है कि मनुष्य को अपने वर्ण के अनुसार रुद्राक्ष धारण करना चाहिए। भोग और मोक्ष, दोनों की कामना रखने वाले लोगों को रुद्राक्ष की माला अथवा मनका जरूर पहिनना चाहिए। विशेषकर शैवोंके लिये तो रुद्राक्ष को धारण करना अनिवार्य ही है।जो रुद्राक्ष आँवले के फल के बराबर होता है, वह समस्त अरिष्टोंका नाश करने में समर्थ होता है। जो रुद्राक्ष बेर के फल के बराबर होता है, वह छोटा होने पर भी उत्तम फल देने वाला व सुख-सौभाग्य की वृद्धि करने वाला होता है। गुंजाफलके समान बहुत छोटा रुद्राक्ष सभी मनोरथों को पूर्ण करता है। रुद्राक्ष का आकार जैसे-जैसे छोटा होता जाता है, वैसे-वैसे उसकी शक्ति उत्तरोत्तर बढती जाती है। विद्वानों ने भी बडे रुद्राक्ष से छोटा रुद्राक्ष कई गुना अधिक फलदायीबताया है किन्तु सभी रुद्राक्ष नि:संदेह सर्वपापनाशकतथा शिव-शक्ति को प्रसन्न करने वाले होते हैं। सुंदर, सुडौल, चिकने, मजबूत, अखण्डित रुद्राक्ष ही धारण करने हेतु उपयुक्त माने गए हैं। जिसे कीडों ने दूषित कर दिया हो, जो टूटा-फूटा हो, जिसमें उभरे हुए दाने न हों, जो व्रणयुक्तहो तथा जो पूरा गोल न हो, इन पाँच प्रकार के रुद्राक्षों को दोषयुक्तजानकर त्याग देना ही उचित है। जिस रुद्राक्ष में अपने-आप ही डोरा पिरोने के योग्य छिद्र हो गया हो, वही उत्तम होता है। जिसमें प्रयत्न से छेद किया गया हो, वह रुद्राक्ष कम गुणवान माना जाता है।रुद्राक्ष दो जाति के होते हैं- रुद्राक्ष एवं भद्राक्ष।रुद्राक्ष के मध्य में भद्राक्षधारण करना महान फलदायक होता है- रुद्राक्षाणांतुभद्राक्ष:स्यान्महाफलम्।शास्त्रों में एक से चौदहमुखीतक रुद्राक्षों का वर्णन मिलता है। इनमें एकमुखीरुद्राक्ष सर्वाधिक दुर्लभ एवं सर्वश्रेष्ठ है। एकमुखीरुद्राक्ष साक्षात् शिव का स्वरूप होने से परब्रह्म का प्रतीक माना गया है। इसका प्राय: अ‌र्द्धचन्द्राकार रूप ही दिखाई देता है। एकदम गोल एकमुखीरुद्राक्ष लगभग अप्राप्य ही है। एकमुखीरुद्राक्ष धारण करने से ब्रह्महत्याके समान महापातकभी नष्ट हो जाते हैं। समस्त कामनाएं पूर्ण होती हैं तथा जीवन में कभी किसी वस्तु का अभाव नहीं होता है। भोग के साथ मोक्ष प्रदान करने में समर्थ एकमुखीरुद्राक्ष भगवान शंकर की परम कृपा से ही मिलता है।दोमुखीरुद्राक्ष को साक्षात् अ‌र्द्धनारीश्वर ही मानें। इसे धारण करने वाला भगवान भोलेनाथके साथ माता पार्वती की अनुकम्पा का भागी होता है। इसे पहिनने से दाम्पत्य जीवन में मधुरता आती है तथा पति-पत्नी का विवाद शांत हो जाता है। दोमुखीरुद्राक्ष घर-गृहस्थी का सम्पूर्ण सुख प्रदान करता है।तीन-मुखी रुद्राक्ष अग्नि का स्वरूप होने से ज्ञान का प्रकाश देता है। इसे धारण करने से बुद्धि का विकास होता है, एकाग्रता और स्मरण-शक्ति बढती है। विद्यार्थियों के लिये यह अत्यन्त उपयोगी है।चार-मुखी रुद्राक्ष चतुर्मुख ब्रह्माजीका प्रतिरूप होने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थो को देने वाला है। नि:संतान व्यक्ति यदि इसे धारण करेंगे तो संतति-प्रतिबन्धक दुर्योगका शमन होगा। कुछ विद्वान चतुर्मुखी रुद्राक्ष को गणेश जी का प्रतिरूप मानते हैं।पाँचमुखीरुद्राक्ष पंचदेवों-शिव, शक्ति, गणेश, सूर्य और विष्णु की शक्तियों से सम्पन्न माना गया है। कुछ ग्रन्थों में पंचमुखीरुद्राक्ष के स्वामी कालाग्नि रुद्र बताए गए हैं। सामान्यत:पाँच मुख वाला रुद्राक्ष ही उपलब्ध होता है। संसार में ज्यादातर लोगों के पास पाँचमुखीरुद्राक्ष ही हैं।इसकी माला पर पंचाक्षर मंत्र (नम:शिवाय) जपने से मनोवांछित फल प्राप्त होता है।छह मुखी रुद्राक्ष षण्मुखीकार्तिकेय का स्वरूप होने से शत्रुनाशकसिद्ध हुआ है। इसे धारण करने से आरोग्यता,श्री एवं शक्ति प्राप्त होती है। जिस बालक को जन्मकुण्डली के अनुसार बाल्यकाल में किसी अरिष्ट का खतरा हो, उसे छह मुखी रुद्राक्ष सविधि पहिनाने से उसकी रक्षा अवश्य होगी।सातमुखीरुद्राक्ष कामदेव का स्वरूप होने से सौंदर्यवर्धकहै। इसे धारण करने से व्यक्तित्व आकर्षक और सम्मोहक बनता है। कुछ विद्वान सप्तमातृकाओंकी सातमुखीरुद्राक्ष की स्वामिनी मानते हैं। इसको पहिनने से दरिद्रता नष्ट होती है और घर में सुख-समृद्धि का आगमन होता है।आठमुखीरुद्राक्ष अष्टभैरव-स्वरूपहोने से जीवन का रक्षक माना गया है। इसे विधिपूर्वक धारण करने से अभिचार कर्मो अर्थात् तान्त्रिक प्रयोगों (जादू-टोने) का प्रभाव समाप्त हो जाता है। धारक पूर्णायु भोगकर सद्गति प्राप्त करता है।नौमुखीरुद्राक्ष नवदुर्गा का प्रतीक होने से असीम शक्तिसम्पन्न है। इसे अपनी भुजा में धारण करने से जगदम्बा का अनुग्रह अवश्य प्राप्त होता है। शाक्तों(देवी के आराधकों)के लिये नौमुखीरुद्राक्ष भगवती का वरदान ही है। इसे पहिनने वाला नवग्रहों की पीडा से सुरक्षित रहता है।दसमुखीरुद्राक्ष साक्षात् जनार्दन श्रीहरिका स्वरूप होने से समस्त इच्छाओं को पूरा करता है। इसे धारण करने से अकाल मृत्यु का भय दूर होता है तथा कष्टों से मुक्ति मिलती है।ग्यारहमुखीरुद्राक्ष एकादश रुद्र- स्वरूप होने से तेजस्विता प्रदान करता है। इसे धारण करने वाला कभी कहीं पराजित नहीं होता है।बारहमुखीरुद्राक्ष द्वादश आदित्य- स्वरूप होने से धारक व्यक्ति को प्रभावशाली बना देता है। इसे धारण करने से सात जन्मों से चला आ रहा दुर्भाग्य भी दूर हो जाता है और धारक का निश्चय ही भाग्योदय होता है।तेरहमुखीरुद्राक्ष विश्वेदेवोंका स्वरूप होने से अभीष्ट को पूर्ण करने वाला, सुख-सौभाग्यदायक तथा सब प्रकार से कल्याणकारी है। कुछ साधक तेरहमुखीरुद्राक्ष का अधिष्ठाता कामदेव को मानते हैं।चौदहमुखीरुद्राक्ष मृत्युंजय का स्वरूप होने से सर्वरोगनिवारकसिद्ध हुआ है। इसको धारण करने से असाध्य रोग भी शान्त हो जाता है। जन्म-जन्मान्तर के पापों का शमन होता है।एक से चौदहमुखीरुद्राक्षों को धारण करने के मंत्र क्रमश:इस प्रकार हैं-1.ॐह्रींनम:, 2.ॐनम:, 3.ॐक्लींनम:, 4.ॐह्रींनम:, 5.ॐह्रींनम:, 6.ॐ ह्रींहुं नम:, 7.ॐहुं नम:, 8.ॐहुं नम:, 9.ॐह्रींहुं नम:, 10.ॐह्रींनम:, 11.ॐह्रींहुं नम:, 12.ॐक्रौंक्षौंरौंनम:, 13.ॐह्रींनम:, 14.ॐनम:।निर्दिष्ट मंत्र से अभिमंत्रित किए बिना रुद्राक्ष धारण करने पर उसका शास्त्रोक्त फल प्राप्त नहीं होता है और दोष भी लगता है।रुद्राक्ष धारण करने पर मद्य, मांस, लहसुन, प्याज, सहजन,लिसोडा आदि पदार्थो का परित्याग कर देना चाहिए। इननिषिद्ध वस्तुओं के सेवन का रुद्राक्ष-जाबालोपनिषद् मेंसर्वथा निषेध किया गया है। रुद्राक्ष वस्तुत:महारुद्रका अंश होने से परम पवित्र एवं पापों का नाशक है। इसके दिव्य प्रभाव से जीव शिवत्व प्राप्त करता है।

कालसर्पयोग

कालसर्पयोग
जन्म कुण्डली में यदि राहु और केतु के बीच एक ही तरफ में सभी सातों ग्रह ( सू. , चं. , मं. , बु. , गु. , शु. , श. ) पड़ जाएँ , तो कालसर्प नामक योग बनता है । इस योग में उत्पन्न जातक (पुरूष अथवा स्त्री) को व्यवसाय, धन, परिवार एवं सन्तानादि के कारण विविध परेशानियों एवं दुःखों से पीड़ित रहना पड़ता है।
पूरक प्रकार सर्पयोग:- कालसर्पयोग के दो प्रमुख प्रकार है एक कालसर्पयोग दूसरा अर्धचन्द्रयोग। कालसर्पयोग जातक की उन्नति मे बाधक होता है तो अर्धचन्द्रयोग जातक को सुख समृद्धि प्रदान करता है जन्मांग मे 2 6 8 तथा 11 वे स्थान मे राहू या केतू हो उनके एक ही ऑर एक ही गोलार्द्ध मे सभी ग्रह हों तो कालसर्पयोग बनता है किन्तु इसके विपरीत कुण्डली मे ग्रहस्थिति हो तो कालसर्पयोग न बनकर अर्धचन्द्रयोग बनता है यह अर्धचन्द्रयोग शुभ फल प्रदान करता है राहू- केतू द्वारा सभी ग्रहो की स्थिति निम्न प्रकार की हो तो कालसर्पयोग नही बनता उल्टे विविध प्रकार के शुभ फल देने वाले योग बनते है
लक्षण:- इस योग के लारण जातक को स्वप्नों में सर्प दिखाई देते है, पानी दिखना , अपने - आप को उड़ते हुए देखना , परिवार के किसी सदस्य पर विपत्ति आना , पितृशिव देखना , सर्प और नेवेले की लड़ाई दिखे तो निश्चय ही गृह - कलह हो सकता है। कालसर्प योग का उपाय कर लें । ये सब लक्षण है कि आपकी कुण्डली में कालसर्प या आंशिक कालसर्प योग है । आप अपनी कुण्डली किसी विद्वान ज्योतिषी को दिखाकर उपाय करें। जैसे:- १- सभी ग्रह सप्तम स्थान से प्रथम स्थान तक हो छत्रयोग बनता है। २- सभी ग्रह प्रथम स्थान से सप्तम स्थान तक हो तो नौकायोग बनता है। ३- सभी ग्रह चतु्र्थ स्थान से दशम स्थान तक हो तो कटुयोग बनता है। ४- सभी ग्रह दशम स्थान से चतु्र्थ स्थान तक हो तो सर्पयोग बनता है।
कालसर्प दोष की शान्ति के लिए उपाय
कालसर्प दोष की शान्ति के लिए मुख्य रूप से :
1) ग्रह शान्ति 2) सर्प दोष 3) पितृ दोष एवं नागाबलि एवं शिव पूजन वैदिक पुराणोक्त विधि से किसी योग्य ब्राह्मण द्वारा करवानी चाहिए।
4) विधिपूर्वक महामृत्युञ्जय का जप भी करें।
यादि कुण्डली में कालसर्पयोग पड़ा हो, तो निम्नलिखित किंचित उपाय करने शुभ एवं कल्याणकारी होंगे ।
1) कालसर्प की अरिष्ट शान्ति के लिए शिव मन्दिर में सवा लाख ॐ नमः शिवाय मन्त्र का पाठ करना तथा पाठोपरान्त रूद्राभिषेक करवाने का विशेष महत्त्व है । साथ ही शिवलिंग पर चांदी का सर्प युगल - नागा स्तोत्र एवं नागा पूजनादि कर के चढ़ाना शुभ होगा ।नाग गायत्री मन्त्र - (ॐ ‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍नव कुलाय विधाहे विषदंताय धीमहि तन्नो सर्पः प्रचोदयात)
2) प्रत्येक शनिवार एक नारियल को तैल एवं काले तिलों का तिलक लगाकर , मौली लपेटकर अपने शिर से तीन बार घुमा कर ॐ भ्रं भ्रीं भ्रौं सः राहवे नमः मन्त्र कम से कम तीन बार पढ़कर चलते पानी में बहा देवें ऐसे कम से कम पाँच शनिवार करें।
3) प्रत्येक शनिवार कुत्तों को दूध और चपाती डालनी तथा गौओं , कौओं को तैल के छीटें देकर रसोई की प्रथम चपातियां डालना शुभ है।
4) कालसर्पयोग के कारण यदि वैवाहिक जीवन में बाधा आती हो , तो जातक पत्नी के साथ दोबारा विवाह करें एवं घर के चौखट द्वार पर चांदी का स्वस्तिक चिन्ह बनवा कर लगवाएं।
5) घर में मयूर पंखका पंखा पवित्र स्थान पर रखें तथा भगवान शिव का ध्यान करते हुए प्रातः उठते ही तथा सोने से पूर्व मयूर पंखेद्वारा हवा करें।
6) प्रत्येक संक्रान्ति को गंगा जल सहित गोमूत्र का छिड़काव घर के सभी कमरों में करें।
7) कालसर्प योग शान्ति के लिए नवनाग देवताओं के नाम का उच्चारण करना चाहिए।
8) महाकुम्भ पर्व के अवसर पर प्रमुख स्नान करें और कुम्भ में स्थित शिव मन्दिर में जाकर विधिपूर्वक पूजन करें ।चाँदी के बने नाग - नागिन के कम से कम 11 जोडे प्रतिदिन शिवलिङग में चढ़ाएँ तथा महादेव से इस कुयोग से मुक्ति से प्रगान करने की प्रार्थना करें।
9) सोना -7 रत्ती , चाँदी - 12 रत्ती , तांबा 16 रत्ती - ये तीनों मिलाकर सर्पाकार अंगूठी अनामिका अंगुली में धारण करने से वांछित लाभ प्राप्त होता है । जिस दिन धारण करें, उस दिन राहु की सामग्री का अंशिक दान भी करना चाहिए।
10) नागपंचमी का व्रत करें तथा नवनाग स्तोत्र का पाठ करें। अनन्त चतुर्दशी का व्रत भी विधिपूर्वक रखें ।
11) प्रत्येक बुधवार को काले वस्त्र में उड़द या मूंग एक मुट्ठी डालकर , राहु का मन्त्र जाप किसी भिखारी को दे देवें । यदि दान लेने वाला कोई ना मिले तो बहते पानी में उस अन्न को छोड़ देना चाहिए । इस प्रकार 72 बुधवार करते रहने से अवश्य लाभ होता है ।
12) यदि किसी स्त्री की कुण्डली इस योग से दूषित है तथा संतित का अभाव है , पूजन - विधि नहीं करवा सकती तो किसी अश्वत्थ (बट) के वृक्ष से नित्य 108 प्रदक्षिणा (घेरे) लगाने चाहिए । तीन सौ दिन में जब 28000 प्रदक्षिणा पूरी होगीं तो दोष दूर होकर वतः ही संतति की प्राप्ति होगी।
13) इसके अतिरिक्त महाकाल रूद्र स्तोत्र , मनसादेवी नाग स्तोत्र , महामृत्युञ्जय आदि स्तोत्रों का विधि - विधान से पूजन , हवन करने से कालसर्प दोष की शान्ति हो जाती है।
सर्पसूक्तमन्त्र:-
ब्रह्मलोकेषु ये सर्पा शेषनाग पुरोगमा:।नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीतो मम सवर्दा।१।इन्द्रलोकेषु ये सर्पा: वासुकी प्रमुखादय:। नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।२।कद्रबेयाश्च ये सर्पा: मातृभक्ति परामा।नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।३।इन्द्रलोकेषु ये सर्पा: तक्षका प्रमुखादय: ।नमोस्तुतेभ्य: सर्पा: सुप्रीता: मम सर्वदा ।५।सत्यलोकेषु ये सर्पा: वासुकिन च रक्षता।नमोस्तुतेभ्य: सर्पा: सुप्रीता: मम सर्वदा ।६।मलये चैव ये सर्पा: कर्कोतक प्रमुखादय:।नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।७।प्रार्थव्याचैव सर्पेभ्य: ये साकेत वासित।नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।८।सर्वग्रामेषु ये सर्पा वसंतिषु संच्छिता।नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।९।ग्रामे वा यदिवारण्ये ये सर्पाप्रचरन्ति च।नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।१०।समुन्द्रतीरे ये सर्पाये सर्पाजलवासिन:।नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।११।रसातंलेषु ये सर्पा: अनन्तादि महाबला:।नमोस्तुतेभ्य: सर्पेभ्य: सुप्रीता: मम सर्वदा।१२।।
इस प्रकार स्तुति करके कलश सहित स्वर्ण सर्प ब्राह्मण को दे। आचार्य के लिये गाय दान का विधान है या समतुल्य दक्षिणा दें। अन्त मे ब्राह्मणों से आशीर्वाद लें। इस विधि से सर्प का संस्कार करने पर मनुष्य निरोगी हो जाता है। उत्तम सन्तति को प्राप्त करता है तथा उसे अकाल मृत्यु का भय नही रहता। इसके बाद उत्तर पूजा मे हवन प्रारम्भ करे।

Wednesday, June 24, 2009

ग्रह को अनुकूल बनाएँ पेड़ पौधों से

ग्रह कभी आपके आँगन की शोभा बन सकते हैं? यह बात आपको भले ही अजूबी लगे, लेकिन आप ऐसा कर सकते हैं। भारतीय पुराणों में भी इनका उल्लेख मिलता है। ज्योतिषी भी इस बात की पुष्टि करते हैं। हरेक राशि और ग्रह के विकल्प के रूप में कुछ खास वनस्पतियों के बारे में हम जानकारी दे रहे हैं। पौधे से पर्यावरण की रक्षा तो होती ही है, साथ ही वे हमारी दिनचर्या पर भी प्रभाव डालते हैं। नर्सरी में ऐसे कई पौधे उपलब्ध होते हैं, जो ग्रह के विकल्प होते हैं। इनको आँगन में रोपने से ग्रह आपके अनुकूल हो जाएँगे। जो आपके कार्य में आनेवाली बाधा को दूर करके आपके जीवन खुशहाल और उल्लासमयी बना देंगे। आइए देखते है कौन-से ग्रह के लिए कौन-सा पौधा लगाएँ।

ग्रह और उनसे संबंधित पेड़ पौधे -

यदि आप सूर्य को प्रसन्न करना चाहते हैं, तो मदार का पेड़ घर में जरूर लगाएँ।
- शमी का पेड़ आपको शनि के दुष्प्रभाव से बचा सकता है।
- राहु की शांति के लिए दूर्बा को रोपित करें।
- केतु के लिए कुशा को घर में रोपें।
- चंद्र के लिए पलास को।
- मंगल के लिए खैर को।
- बुध के लिए अपामार्ग को।
- गुरु के लिए पीपल को
- शुक्र के लिए गूलर का पेड़ लगाना हितकारी होता है।